‘उन्हें’ नहीं पता कि ग़ुस्सा किस पर करें! (राजनैतिक व्यंग्य-समागम : राजेंद्र शर्मा)

भाई ये गजब देश है। पहलगाम में आतंकवादी हमला हो गया। अट्ठाईस लोग मारे गए और डेढ़ दर्जन से ज्यादा गंभीर रूप से घायल। नाम पूछकर और धर्म देखकर, गोली मारी। फिर भी पब्लिक है कि ठीक से गुस्सा तक नहीं है। लोग गुस्सा भी हो रहे हैं तो बच-बचकर। और तो और, जिन्होंने अपने परिजन खोए हैं, वह भी एक ही सांस में आतंकवादियों को गाली भी दे रहे हैं और कश्मीरियों के गुन भी गा रहे हैं।
और कश्मीरी नेताओं के नहीं, मामूली कश्मीरियों के गुन गा रहे हैं। टट्टू वालों का, टूर गाइडों का, छोटे-मोटे सामान की दुकान चलाने वालों का, टैक्सी ड्राइवरों का, होटल वालों का शुक्रिया अदा कर रहे हैं कि उन्होंने संकट के वक्त में बड़ा साथ दिया। जो बच गए, उन्हीं ने तो मौत के मुंह से बचा के निकाला। अपनी जान की परवाह नहीं की, अपरिचित सैलानियों को, घायलों को, औरतों को, बच्चों को बचाकर निकाला। जब गोलियां चल रही थीं, तब भी खुद बचकर भागने के बजाए, पीठ पर उठाकर घायलों को बचाया।
अजब देश है, जहां आंसुओं के बीच से भी मौका निकालकर भुक्तभोगी, स्थानीय कारोबारियों, दुकानदारों, व्यापारियों तक की तारीफ कर रहे हैं, जिन्होंने अपना नफा-नुकसान नहीं देखा, दर्द से तड़पते सैलानियों को इस कदर अपना लिया कि उनकी हमदर्दी में, कई दिन सब काम-काज बंद ही रखा। मारने वाले कश्मीरी थे कि नहीं, यह तो पता नहीं, पर खुद को मुसलमान जरूर कहते थे। पर मदद करने वाले पक्के कश्मीरी भी थे और मुसलमान भी। मारने वाले अगर चार या छह थे, हालांकि उनके पास बंदूक की राक्षसी ताकत थी, लेकिन जो मदद को बढ़े हाथ हजारों थे, जिनके पीछे इंसानियत का जज्बा था। फिर मारने वालों की वजह से, बचाने वालों पर गुस्सा कैसे करें? और वह भी तब, जबकि मरने वालों में टट्टू चलाने वाला सैयद आदिल हुसैन शाह भी था, जो सैलानियों को बचाने के लिए आतंकवादियों से ही भिड़ गया और मरते-मरते आतंकवादियों का मुसलमान का नकाब फाड़कर, उनकी पहचान फकत आतंकवादी की कर गया। तब सिर्फ गुस्सा करें, तो कैसे? गुस्से के साथ ही जो प्यार आ रहा है, उसका क्या करें?

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फिर भी देश गजब सही, पर देश में बहुत से अजब लोग भी हैं। ये परेशान हैं कि गुस्सा करें, तो किस पर? सिर्फ नकाबपोश आतंकवादी पर गुस्सा करें, तो गुस्सा निकालें किस पर? आस-पड़ोस का कोई तो होना चाहिए, जिस पर गुस्सा कर सकें! अफसोस कि हिंदुओं का खून, उतना नहीं खौला, जितना खौलना चाहिए था और सारे नफरती कड़ाह चढ़ाने के बाद भी हिंदुओं का खून उतना नहीं खौला। फिर भी उनकी मेहनत भी पूरी तरह अकारथ नहीं हुई और कुछ गर्मी तो हिंदुओं के खून ने दिखाई ही।
भुक्तभोगी अपीलें करते रह गए कि आम कश्मीरी मुसलमानों को दोषी बनाकर, गुस्से के नाम पर आतंकवादियों के मंसूबों को उनकी गोलियों से आगे बढ़ाने का काम कोई नहीं करे, पर खून की गर्मी जोर मारे बिना नहीं रही। नाराजगी थी आतंकवादियों से और निकाल दी पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा वगैरह में जगह-जगह कश्मीरी छात्रों पर ; छोटा-मोटा काम करने वाले आम कश्मीरियों पर। जहां-जहां राज में भगवाधारी, वहां-वहां उतनी ही मति गयी मारी!
देश अजब-गजब है, तो राज करने वाले और भी गजब हैं। पहलगाम के हमले की खबर मिली, तो मोदी जी अपनी विदेश यात्रा अधूरी छोड़क़र बीच में से ही वापस लौट आए। पर कश्मीर नहीं आए। शाह साहब को पहले ही कश्मीर भेज चुके थे, वह भी सब को बताकर। शाह साहब भी बिना वक्त गंवाए मरने वालों को सरकारी श्रद्धांजलि देने पहुंचे, लाल कालीन पर चलकर। शाह साहब मीटिंग-मीटिंग खेलकर दिल्ली लौट भी आए, पर मोदी जी कश्मीर नहीं आए। कश्मीर तो कश्मीर, मोदी जी तो पहलगाम पर अपनी सरकार की बुलायी सर्वदलीय बैठक तक में नहीं आए।

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मोदी जी आए बिहार में मधुबनी में। बिहार में जल्द ही चुनाव भी तो होना है। सोचा, पब्लिक का दिमाग गर्म है, बेनिफिट ले सकते हैं। फिर क्या था, आंतकवाद पर जमकर बरसे। मधुबनी में हिंदी में तो हिंदी में, अंगरेजी में भी बरसे, ताकि इंग्लैंड-अमरीका तक सुनाई दे। आतंकवादियों को और उनके मददगारों को मिट्टी में मिला देने का एलान कर दिया। ऐसी सजा देने की धमकी दे डाली, जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी। फिर बिहार के लिए तोहफों की एक और किस्त का एलान किया। दो रेलगाड़ियों को हरी झंडी दिखाई। मंच पर नीतीश कुमार के साथ खी-खी की और दिल्ली आ गए। राहुल गांधी कश्मीर हो आए, पर मोदी जी कश्मीर नहीं आए। वैसे, मणिपुर तो उनका दो साल से इंतजार कर रहा है, कश्मीर का नंबर तो अभी चार-छह रोज पहले ही लगा है!
गजब देश है, तो मोदी जी के विरोधी भी कम अजब नहीं हैं। पहलगाम की खबर आने के बाद से, एक ही बात का शोर मचा रहे हैं कि यह तो सुरक्षा चूक हुई। फिर खुद ही सवाल करने लग जाते हैं कि इस सुरक्षा चूक के लिए जिम्मेदार कौन है? बेचारी सरकार कह रही है कि दु:ख है, गहरा दु:ख है, पर ये चूक और उसकी जिम्मेदारी पर ही अड़े हुए हैं। विपक्ष वालों ने चूक का इतना शोर मचाया, इतना शोर मचाया कि बेचारे छोटे वाले मंत्री, किरण रीजिजू से एक चूक तो करवा ही ली। अगले के मुंह से निकल ही गया कि चूक हुई थी, सब कुछ अच्छा चलने के बावजूद, कुछ चूक हुई थी! क्या फायदा हुआ? बेचारे को बाद में वीडियो का चूक वाला हिस्सा काटकर बाहर करना पड़ा। पर तब तक जुबान से निकले हुए शब्द, वह भी वीडियो में दर्ज शब्द, दूर-दूर तक फैल चुके थे।
खैर! जैसे चूक की बात मानकर भी सरकार को वापस लेनी पड़ी है, वैसे ही कहीं जिम्मेदार कौन, का अपना जवाब भी सरकार को वापस नहीं लेना पड़ जाए।
सर्वदलीय बैठक में सरकार ने कहा कि बैसारण घाटी में कोई सुरक्षा नहीं थी, क्योंकि सरकार को किसी ने बताया ही नहीं था कि वहां सैलानी जा रहे थे। सारी गलती मारने वालों के बाद अगर मरने वालों की नहीं भी मानी जाए, तब भी होटलवालों और टूर ऑपरेटरों की जरूर थी ; सरकार की इजाजत के बिना ही घाटी को सैलानियों के लिए खोल दिया! पर पता नहीं क्यों पहलगाम वाले और जम्मू-कश्मीर की सरकार वाले इस पर अड़े हुए हैं कि बैसारण की घाटी तो हमेशा से, ज्यादा बर्फ के टैम को छोडक़र, पूरे साल ही खुली रहती है। ना किसी से इजाजत ली जाती है, ना किसी को जानकारी दी जाती है। सरकार तो इतना बताए कि वहां से सीआरपीएफ किस के कहने पर हटाई गयी थी। दिल्ली की सरकार को अगर यह बहाना भी वापस लेना पड़ गया, तो सर्वदलीय बैठक में से बचेगा क्या ; बाबा जी का ठुल्लू। पर ठुल्लू बचा कैसे कहूं!
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राजेन्द्र शर्मा
(राजेंद्र शर्मा वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

 

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Author: Barabanki Express

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