2024 के लोकसभा चुनाव से पहले, मतदाताओं को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर काफी बहस हुई थी। व्यापक रूप से यह माना जाता था कि राम मंदिर के उद्घाटन का मतदाताओं पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा। आम धारणा यह भी थी कि भाजपा की संगठनात्मक ताकत, असीमित धन और जमीनी स्तर पर सूक्ष्म प्रबंधन अजेय साबित होगा।
दूसरी ओर, विश्लेषकों और विशेषज्ञों ने इंडिया गठबंधन की चुनावी व्यवस्था को आंतरिक विरोधाभासों, देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य के लिए होने वाले बड़े चुनावी युद्ध से निपटने के लिए उचित तैयारियों की कमी और आम तौर पर संगठनात्मक स्तर पर अव्यवस्था से भरा हुआ बताया था। चुनाव प्रचार शुरू होने से पहले ही इन अनुमानों के बारे में चर्चा होने लगी थी।
चुनाव-पूर्व प्रभाव
यह भी व्यापक रूप से माना जाता था और इससे भी अधिक व्यापक रूप से प्रचारित किया गया कि भाजपा के पास प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में एक जाना-पहचाना (और प्रिय?) चेहरा है, लेकिन इंडिया समूह के पास निश्चित रूप से ऐसा चेहरा नहीं है। इसके अलावा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों पर भाजपा का पूर्ण प्रभुत्व, भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) की बेशर्म पक्षपातपूर्णता और यह तथ्य कि देश भर में सरकार और तथाकथित स्वायत्त संस्थानों के प्रशासकों का एक बड़ा वर्ग खुले तौर पर केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहा था, चुनाव में भाजपा की स्पष्ट जीत का मामला पहले से तय लग रहा था। यहां तक कि उसका नारा ‘400-पार’ — ‘400 से आगे’ – पूरी तरह से साकार होता दिख रहा था।
जब यह धारणा मजबूत हो रही थी – या व्यवस्थित रूप से बनाई जा रही थी – लगभग हर विश्लेषक और विशेषज्ञ के साथ-साथ असंख्य मैक्रो और माइक्रो-स्तरीय सर्वेक्षणों में कहा गया था कि देश भर में लोग मुद्रास्फीति, बेरोजगारी, कर्ज और जीवन स्तर में गिरावट को लेकर चिंतित थे। बहरहाल, इस रहस्योद्घाटन के बाद यह स्थापना दी गई कि भाजपा निश्चित रूप से अपने संसाधनों की विशालता, जिसमें केंद्र और कई महत्वपूर्ण राज्यों में सरकार में इसकी शक्ति भी शामिल हैं, पार्टी की ध्रुवीकरण क्षमता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के नेतृत्व वाले बड़े संघ परिवार द्वारा लोगों के मन में इसके सर्वोच्च नेता की बड़ी छवि के निर्माण के कारण वह वर्तमान में मौजूद किसी भी सत्ता विरोधी भावना या असंतोष पर काबू पाने में सक्षम होगी।
हालांकि चुनाव-पूर्व विश्लेषण के ये सभी तत्व पूरे देश के लिए समान थे, लेकिन अंतिम परिणाम हर राज्य में अलग-अलग आए। दिलचस्प बात यह है कि उत्तर भारत के भाजपा शासित राज्यों – मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश – में भी चुनावी नतीजे बहुत अलग-अलग रहे हैं। उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा चौंकाने वाले नतीजे आए, जहां भाजपा को इस राज्य में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, जहां उसके पिछले दो लोकसभा चुनावों की तरह ही इस बार भी lबहुत अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद थी।
हिंदुत्व बनाम जाति की सकारात्मक राजनीति: एक अवलोकन
तीन मंदिर नगर – अयोध्या, काशी और मथुरा – पिछले कई चुनावों में राज्य में भाजपा के चुनावी अभियानों के केंद्र में रहे हैं। भाजपा और हिंदुत्व-उन्मुख संघ परिवार में उसके सहयोगियों ने इन अभियानों के दौरान दावा किया है कि तीनों शहरों में मस्जिदें उन जगहों पर स्थित हैं, जहां कथित तौर पर बड़े मंदिर थे। इस अभियान में यह भी कहा गया कि अयोध्या और मथुरा क्रमशः भगवान राम और भगवान कृष्ण की जन्मभूमि हैं। 1948 से हिंदू महासभा और फिर संघ परिवार इन स्थलों को ‘हिंदुओं’ के लिए वापस जीतने” के लिए अभियान चला रहे हैं और गहरी सांप्रदायिक दरारें पैदा करने, दंगे भड़काने, भारी मात्रा में प्रचार सामग्री प्रकाशित करने और वितरित करने में सफल रहे हैं, जिसने कई लोगों के लिए बहुत-सी कल्पना और दंतकथाओं को स्वीकार्य तथ्यों में बदल दिया है।
इन अभियानों ने न केवल राज्य में भाजपा के लिए एक राजनीतिक आधार तैयार किया है, बल्कि 1989 के लोकसभा चुनावों के बाद इसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाने में भी सफलता पाई है। तब से राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर इसकी ताकत में तेजी से वृद्धि हुई है। 80 लोकसभा सीटों के साथ, उत्तरप्रदेश ने पिछले दो आम चुनावों में संसद में भाजपा को बहुमत दिलाने वाली संख्या प्रदान की है। यह प्रधानमंत्री का अपना निर्वाचन क्षेत्र है। यह अल्पसंख्यक समुदायों, विशेष रूप से मुसलमानों पर सबसे क्रूर हमलों और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के चरम का घर रहा है।
बहरहाल, 2024 के आम चुनाव में भाजपा ने न केवल राज्य में 30 से अधिक लोकसभा सीटें खो दीं और परिणामस्वरूप, अपना बहुमत का दर्जा खो दिया, बल्कि इसका वोट शेयर भी 49.6% से घटकर 41.4% हो गया। पार्टी को 2019 की तुलना में 2024 में लगभग 65 लाख कम वोट मिले, जबकि कुल मतदान की संख्या में वृद्धि हुई थी। वाराणसी में, प्रधानमंत्री के वोट कम हो गए और उनकी जीत का अंतर 2019 में 4,79,505 वोट से घटकर 2024 में 1,52,513 हो गया।
यह समझना महत्वपूर्ण है कि बिहार और मध्य प्रदेश में ऐसा कैसे नही हुआ, जबकि बेरोजगारी, पेपर लीक, गरीबी आदि के मुद्दे मतदाताओं के लिए उतने ही चिंताजनक थे, जितने उत्तर प्रदेश में थे। बिहार में राजद के नेतृत्व वाला महागठबंधन 39 में से 07 सीटें जीत सका और मध्य प्रदेश में कांग्रेस सभी 29 सीटें भाजपा के हाथों हार गई।
जवाब खोजने की कोशिश करते समय, पिछले चुनाव का एक छोटा सा प्रसंग कुछ मददगार हो सकता है। 1992 में अयोध्या में मस्जिद के विध्वंस के बाद, भाजपा सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था और राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था। 1993 में हुए विधानसभा चुनावों से पहले, मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली सपा और कांशीराम के नेतृत्व वाली बसपा ने एक चुनावी गठबंधन बनाया, जिसने भाजपा को उस समय चुनौती दी, जब संघ परिवार बाबरी मस्जिद के विध्वंस का जश्न मनाने वाले हिंदू विजयवाद के आधार पर तीव्र सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने के प्रयासों में लगा हुआ था। इसके बावजूद, अभियान के दौरान एक नारा लोकप्रिय हुआ था ‘मिल गए मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम’।
सपा-बसपा गठबंधन एक शक्तिशाली गुट के रूप में उभरा, जिसने कुल 422 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा की 177 सीटों से सिर्फ़ एक सीट कम हासिल की। यह गठबंधन वामपंथी दलों, कांग्रेस, जनता दल और जनता पार्टी के समर्थन से सरकार बनाने में सक्षम था। इस चुनावी सफलता ने साबित कर दिया कि जातिगत गठबंधन के ज़रिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रभावी ढंग से मुकाबला करना संभव है।
2024 के चुनावों से पहले, सपा गठबंधन से कई नेताओं के अलग होने से भाजपा की अजेयता के बारे में धारणाएँ और भी बढ़ गई थी। दो प्रमुख क्षेत्रीय नेता, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के ओम प्रकाश राजभर और राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के जयंत चौधरी ने सपा गठबंधन छोड़कर भाजपा से हाथ मिला लिया। 2019 के लोकसभा चुनावों में सपा की सहयोगी बसपा अकेले ही चुनाव लड़ने के लिए दृढ़ संकल्पित थी। कुल मिलाकर, इंडिया गठबंधन की शुरुआत अस्थिर होती दिख रही थी।
पीडीए के नारे और ‘संविधान बचाओ’ अभियान का प्रभाव
इसके बावजूद, सपा के नारे ‘पीडीए’ (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) और आधी आबादी — महिला की गूंज पूरे राज्य में सुनाई दी। अखिलेश यादव ने उम्मीदवारों के चयन में बेहद सावधानी और समझदारी दिखाई, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि यादवों के अलावा अन्य ओबीसी समुदायों को बड़ी संख्या में टिकट दिए गए, दलित उम्मीदवार सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ पाए, गैर-मुस्लिम उम्मीदवार बड़ी मुस्लिम आबादी वाली सीटों पर चुनाव लड़ पाए, वगैरह। एक बार जब अभियान शुरू हुआ, खासकर पहले दो दौर के मतदान के बाद, कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ संयुक्त अभियान ने गति पकड़ी और पहली बार मतदान करने वाले युवा मतदाताओं सहित कई लोगों को उत्साहित करने में सफल रहा।
विपक्षी नेताओं ने संविधान के लिए उस खतरे पर ध्यान केंद्रित रखा, जिस पर भाजपा की मजबूती से खतरा पैदा होने वाला था। यह मुद्दा दलित समुदाय और युवा ओबीसी के बीच गूंजता रहा, जिन्हें लगा कि अगर आरक्षण हटा दिया गया, तो नौकरियों तक उनकी पहुंच काफी कम हो जाएगी। निजीकरण और सार्वजनिक संपत्तियों के मुद्रीकरण पर भाजपा के फोकस ने विपक्षी अभियान को विश्वसनीयता प्रदान की। जबकि अंबेडकर के संविधान के लिए खतरा कई दलित समूहों के लिए एक भावनात्मक मुद्दा था, लेकिन उनमें से सबसे अधिक राजनीतिक रूप से जागरूक – जाटव – सबसे अधिक प्रभावित हुए। परंपरागत रूप से, यह समुदाय बीएसपी समर्थकों में सबसे वफादार रहा है, लेकिन इस चुनाव अभियान में मायावती द्वारा अपनाई गई रणनीति ने उन्हें हताश और निराश कर दिया था।
अभियान की शुरुआत में मायावती के उत्तराधिकारी, उनके भतीजे आनंद ने भाजपा के खिलाफ़ तीखे भाषण दिए, लेकिन दूसरे चरण के मतदान के बाद, उन्होंने उसे सार्वजनिक रूप से फटकार लगाई, उन्हें आगे के प्रचार से हटा दिया और एक ऐसे कदम के रूप में, जो स्पष्ट रूप से भाजपा के लिए मददगार साबित हुआ, जौनपुर में अपना उम्मीदवार बदल दिया। उनके इन कदमों ने उनके समर्थकों में निराशा पैदा की, जिन्होंने भाजपा को हराने और संविधान को बचाने के लिए सपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को वोट देने का फैसला किया। यह विपक्षी वोटों में एक महत्वपूर्ण वृद्धि थी।
आजीविका के मुद्दों पर ध्यान
भाजपा द्वारा संविधान के लिए खतरा पैदा होने के मुद्दे के साथ-साथ गठबंधन ने बेरोजगारी, बढ़ते कर्ज, किसानों के संकट, महिलाओं के खिलाफ अत्याचार आदि पर भी ध्यान केंद्रित किया। टिकट वितरण में जिन समुदायों को महत्व दिया गया और वे पीडीए के नारे से उत्साहित हुए थे, उनमें से अधिकांश लोग वास्तव में आजीविका मुद्दों से सबसे अधिक प्रभावित थे और वे गठबंधन सहयोगियों के पीछे लगातार बढ़ती संख्या में एकजुट हुए। मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने गठबंधन के लिए बड़े पैमाने पर मतदान किया, क्योंकि भाजपा सरकार की नीतियों से सबसे ज्यादा पीड़ित होने के अलावा, वे इसके क्रूर सांप्रदायिक हमलों और प्रचार का लक्ष्य थे।
हालांकि शुरुआती दौर के बाद गठबंधन की जीत की गति और सीटों की संख्या में वृद्धि हुई, लेकिन जहां तक सपा का सवाल है, पश्चिमी और मध्य उत्तर प्रदेश में पहले दौर में इसकी सफलता दर प्रभावशाली रही। कैराना (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में 2012 में दंगे हुए थे और भाजपा द्वारा ध्रुवीकरण का एक ठोस अभियान चलाया गया था, जिसका नेतृत्व अमित शाह ने खुद किया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि ‘मुस्लिम‘ आतंक के कारण हिंदुओं को जिले से बड़ी संख्या में पलायन करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, वहां एक महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवार से एक युवा मुस्लिम गुज्जर महिला ने मौजूदा भाजपा सांसद, एक गुज्जर हिंदू को आसानी से हरा दिया। जहां किसानों के संघर्ष ने जीत में बड़ी भूमिका निभाई, वहीं उम्मीदवार का चुनाव भी एक महत्वपूर्ण कारक था। यह एक ऐसा चुनावी परिणाम है, जिसका न केवल क्षेत्रीय कारकों के आधार पर, बल्कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से भी सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने की आवश्यकता है।
साल के सबसे गर्म महीनों में आयोजित इस बेहद लंबे चुनाव के सभी सात चरणों में उत्तर प्रदेश में मतदान हुआ। शुरू में, ऐसा माना जा रहा था कि इससे भाजपा को मदद मिलेगी, क्योंकि इससे प्रधानमंत्री को अधिकतम रैलियां करने का मौका मिलेगा, जो उन्होंने किया भी। बहरहाल, इसका एक अप्रत्याशित नतीजा यह भी हुआ कि उत्तर प्रदेश में संयुक्त विपक्षी अभियान को समर्थन और गति हासिल करने के लिए समय मिल गया। केरल की वायनाड सीट, जहां से राहुल गांधी चुनाव लड़ रहे थे, में मतदान समाप्त होने के बाद वे उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के साथ शामिल हो गए। उसी समय, कांग्रेस ने उन्हें रायबरेली से मैदान में उतारने और अमेठी सीट से भी लड़ाने का फैसला किया। इससे संयुक्त अभियान को बढ़ावा मिला और सपा ने पर्याप्त चुनावी सफलता हासिल की।
अयोध्या फैसले का महत्व
फैजाबाद (अयोध्या) में सपा उम्मीदवार की जीत ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति समर्पित लोगों में बहुत खुशी का माहौल पैदा कर दिया है, जो इसे अपने उद्देश्य की बड़ी जीत के रूप में देखते हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि इस जीत के कारण कहीं अधिक जटिल हैं। यहां से भाजपा के निवर्तमान सांसद लल्लू सिंह राजपूत उम्मीदवार थे, जिन्होंने घोषणा की थी कि इस पार्टी के लिए ‘400 पार’ जाना जरूरी है, क्योंकि संविधान में मूलभूत परिवर्तन की जरूरत है और इससे विपक्ष के इस अभियान को काफी बल मिला कि संविधान खतरे में है। सपा ने एक शानदार राजनीतिक कदम उठाते हुए इस संसदीय क्षेत्र के एक विधानसभा क्षेत्र से सात बार सपा विधायक रहे पासी दलित उपजाति के अवधेश कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया और इससे दलित मतदाताओं में उत्साह की लहर दौड़ गई। उनकी जीत तब सुनिश्चित हुई, जब उन्होंने बड़ी संख्या में मुस्लिम, यादव और ग्रामीण गरीबों के अन्य वर्गों के साथ मिलकर काम किया।
अयोध्या विधानसभा क्षेत्र में मंदिर निर्माण से जुड़े विध्वंस और भूमि अधिग्रहण के कारण लोगों में गुस्सा था, जिसके कारण हजारों लोगों को अपने घर और आजीविका से हाथ धोना पड़ा। इस निर्वाचन क्षेत्र में उच्च जातियों की बड़ी आबादी के साथ-साथ संघ परिवार का मजबूत आधार और संगठन भी है। लेकिन राम मंदिर के उद्घाटन से पैदा हुआ उत्साह आजीविका के मुद्दों के मामले में लोगों के असंतोष को दूर नहीं कर सका। संविधान को बचाने के लिए हाशिए पर पड़ी जातियों के समुदायों के भीतर की ललक और अवधेश प्रसाद की उम्मीदवारी और उसके साथ मजबूत हुए जातीय गठबंधन से पैदा हुआ उत्साह महत्वपूर्ण पूरक कारक साबित हुए।
अयोध्या में अभियान के दौरान एक लोकप्रिय नारा था ‘ना मथुरा ना काशी, जीतेगा अवधेश पासी’ – (विजेता न तो मथुरा होगा और न ही काशी, बल्कि अवधेश पासी होगा)। यह उस आत्मविश्वास और ताकत की याद दिलाता है, जो एक मजबूत सामाजिक गठबंधन हाशिए पर पड़े हिंदू समुदायों के सदस्यों में पैदा करता है ; एक ऐसा आत्मविश्वास, जो उन्हें सांप्रदायिक मुद्दों का उपहास करने और संघ परिवार के ‘धार्मिक’ प्रचार को अस्वीकार करने की अनुमति देता है। यहां यह याद रखना भी दिलचस्प है कि 1989 के आम चुनाव में जब संघ परिवार अपने राम जन्मभूमि अभियान को उग्र रूप देने में सफल रहा था, तब भी फैजाबाद सीट सीपीआई के मित्रसेन यादव ने जीती थी। उन्हें समर्थन देने वाले सामाजिक समूह लगभग वही थे, जिन्होंने अवधेश प्रसाद को जीत दिलाई थी।
प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी संयुक्त अभियान से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश की ओर बढ़ने के साथ ही मजबूत होता जा रहा था। अब कई लोगों को लगता है कि अगर विपक्ष का अभियान यहां बेहतर तरीके से संगठित होता, तो मोदी खुद हार सकते थे। दुर्भाग्य से, कांग्रेस उम्मीदवार ने उस तरह का आत्मविश्वास और ऊर्जा नहीं दिखाई, जिसकी जरूरत थी यह स्पष्ट हो गया कि मोदी लहर वास्तव में कम हो गई है, तब तक उस तरह का आक्रामक अभियान बनाने में बहुत देर हो चुकी थी, जो बदलाव ला सकता था।
महिला मतदाताओं को भाजपा सरकार ने खास तौर पर निशाना बनाया है। महिला मतदाताओं ने बहुत बड़ी संख्या में मतदान किया। अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एआईडीडब्ल्यूए – एडवा) के सदस्यों ने कई जिलों में अभियान चलाया, घर-घर जाकर पर्चे बांटे और महिलाओं से बात की, उनसे उनकी राय और समस्याओं के बारे में पूछा। उन्होंने पाया कि गरीब और निम्न मध्यम वर्ग की महिलाएं महंगाई और अपने बच्चों की बेरोजगारी से बहुत परेशान हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार पेपर लीक होने से भी वे भाजपा सरकार के प्रति बहुत नाराज और निराश हैं। उनमें से कई ने कहा कि सरकार को घटिया गुणवत्ता वाले मुफ्त राशन के बजाय काम देना चाहिए। बेशक, समाज के समृद्ध तबके से आने वाली ऊंची जाति की महिलाएं सांप्रदायिक प्रचार से ज्यादा प्रभावित दिखीं। जनवादी महिला समिति के कार्यकर्ताओं का एक दिलचस्प अवलोकन यह था कि जिन गांवों में दलित और पिछड़ी जाति की महिलाएं सपा के लिए अपना समर्थन व्यक्त कर रही थीं, वहां कुछ गरीब ऊंची जाति की महिलाओं ने विपक्ष को भी वोट दिया।
कांग्रेस ने गठबंधन के तहत 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 06 सीटें जीत सकी, जो बहुत प्रभावशाली आंकड़ा नहीं है। राज्य में कांग्रेस का संगठन बहुत कमजोर हो गया है और कई क्षेत्रों में तो इसका अस्तित्व ही नहीं है। वहीं, संयुक्त अभियान में राहुल गांधी की मौजूदगी और रायबरेली और अमेठी दोनों सीटों से लड़ने के कांग्रेस के फैसले ने पार्टी को मजबूत करने और मतदाताओं को उत्साहित करने में बहुत मदद की।
विपक्ष के लिए आगे की राह
उत्तरप्रदेश के चुनाव के नतीजों का भाजपा सरकार और उसकी विभाजनकारी राजनीति का विरोध करने वाले सभी लोगों ने उत्साहपूर्वक स्वागत किया है। हालांकि, यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि भाजपा ने हमेशा दिखाया है कि वह हर झटके और हार को बेहद गंभीरता से लेती है, वह इसके लिए जिम्मेदार विभिन्न कारकों पर विचार करती है और व्यापक रूप से और अक्सर नुकसान की सफल भरपाई करती है। 2017 में, जब भाजपा ने यूपी विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की, तो सपा ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य द्वारा खाली की गई गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में प्रभावशाली जीत हासिल की थी। हालांकि सपा ने इन दोनों सीटों को जीतने के लिए चतुराई से जातिगत अंकगणित का इस्तेमाल किया था। बहरहाल, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा, सावधानीपूर्वक विश्लेषण और प्रभावी जातिगत संयोजनों के बाद, दोनों सीटें जीतने में सफल रही।
राज्य में लगातार हुए चुनावों के विश्लेषण से यह साबित होता है कि चुनावी राजनीति में जातिगत गोलबंदी प्रभावी तो है, लेकिन यह किसी एक पार्टी का विशेषाधिकार नहीं है। उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक भारत के लिए प्रतिबद्ध सभी लोगों के लिए एक अद्भुत मनोबल बढ़ाने वाला है, जहां सभी प्रकार की असमानता के खिलाफ संघर्ष के लिए जगह है, लेकिन इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि भाजपा और हिंदुत्व की उसकी विचारधारा पूरी तरह से पराजित हो गई है। भाजपा के हिंदुत्व प्रोजेक्ट के लिए मुख्य समर्थन आधार, जिसमें हिंदू आबादी का एक बड़ा हिस्सा शामिल है, अपरिवर्तित बना हुआ है। शासन के सभी पहलुओं और लोगों की बुनियादी जरूरतों को संबोधित करने में इसकी विफलता के साथ-साथ इसके नेताओं के अहंकार, क्रूरता और असहिष्णुता ने पूरे राज्य (और देश के अन्य हिस्सों में) लोगों को नाराज कर दिया है। प्रभावी प्रचार, एक लोकप्रिय गठबंधन को मजबूत करना और बेहद चतुराई से उम्मीदवारों का चयन, खासकर जाति के संदर्भ में, सपा के नेतृत्व वाले विपक्ष के लिए एक बड़ी जीत और भाजपा के लिए एक बड़ा झटका है। हालांकि, जनता के बीच भाजपा की विचारधारा और हिंदुत्व एजेंडे को जो समर्थन मिला है, वह उसे नुकसान से उबरने और फिर से उभरने की क्षमता का आधार बनाता है।
इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि उत्तर प्रदेश में सपा के नेतृत्व वाले विपक्ष ने हाल के चुनावों में जो लाभ हासिल किया है, उसे न केवल देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी बरकरार रखा जाए और विकसित किया जाए, बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। विपक्ष को आम लोगों, बेरोजगार युवाओं, निराश ग्रामीण गरीबों और संघर्षरत किसानों के साथ लड़ते हुए दिखना चाहिए। उसे सड़कों पर भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे और हिंदुत्व और मनुवाद के प्रति उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता का बिना किसी समझौते के सामना करना चाहिए। उसे सामाजिक न्याय, समानता और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे को आगे बढ़ाने में भी उतना ही दृढ़ रहना चाहिए। उसे अपने गठबंधन को व्यापक बनाने की भी आवश्यकता है, ताकि भाजपा और उसकी नीतियों का विरोध करने वाले सभी राजनीतिक दलों, सामाजिक समूहों, आंदोलनों और संगठनों को इसमें शामिल किया जा सके। वह अपनी उपलब्धियों पर चुप नहीं बैठ सकता।
उत्तर प्रदेश में अपनी अत्यंत सीमित उपस्थिति के बावजूद वामपंथ को आम लोगों की बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी के इर्द-गिर्द संघर्ष और अभियान संगठित करने के लिए हर संभव प्रयास करना होगा। जनवादी महिला समिति को भी महिलाओं के बीच अपना काम बढ़ाना होगा और उन्हें विरोध-प्रदर्शनों और संघर्षों में शामिल करने के लिए हर संभव प्रयास करने होंगे। यह वैचारिक लड़ाई प्रभावी ढंग से तभी आगे बढ़ सकती है, जिसमें मनुवादी हिंदुत्व की ताकतों के खिलाफ संघर्ष में वामपंथी ताकतें शामिल हों।
लेखिका सुभाषिणी अली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी — सीपीआई (एम) की पोलित ब्यूरो की सदस्य हैं और जनवादी महिला समिति की पूर्व अध्यक्ष हैं। वे कानपुर से सांसद भी रह चुकी हैं। अनुवादक संजय पराते छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 094242-31650
Author: Barabanki Express
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